इक ख़ौफ़ सा दरख़्तों पे तारी था रात-भर
पत्ते लरज़ रहे थे हवा के बग़ैर भी
Anwar Masood
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भूले-बिसरे हुए ग़म फिर उभर आते हैं कई
ज़िद में दुनिया की बहर-हाल मिला करते थे
नौमीद करे दिल को न मंज़िल का पता दे
चुप रहे देख के उन आँखों के तेवर आशिक़
बोसे बीवी के हँसी बच्चों की आँखें माँ की
छू भी तो नहीं सकते हम मौज-ए-सबा बन कर
मिज़ाज अलग सही हम दोनों क्यूँ अलग हों कि हैं
अख़्लाक़ ओ शराफ़त का अंधेरा है वो घर में
किस दर्द से रौशन है सियह-ख़ाना-ए-हस्ती
गुज़र रही है मगर ख़ासे इज़्तिराब के साथ
सुब्ह तक हम रात का ज़ाद-ए-सफ़र हो जाएँगे
मैं और मिरी ज़ात अगर एक ही शय हैं