एहसास-ए-जुर्म जान का दुश्मन है 'जाफ़री'
है जिस्म तार तार सज़ा के बग़ैर भी
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रुख़ हवाओं के किसी सम्त हों मंज़र हैं वही
मैं उजड़ा शहर था तपता था दश्त के मानिंद
कैसा मकान साया-ए-दीवार भी नहीं
अख़्लाक़ ओ शराफ़त का अंधेरा है वो घर में
कोई मंज़िल आख़िरी मंज़िल नहीं होती 'फ़ुज़ैल'
दिलों के आइने धुँदले पड़े हैं
तअल्लुक़ात का तन्क़ीद से है याराना
लफ़्ज़ों का साएबान बना लेने दीजिए
हर सम्त लहू-रंग घटा छाई सी क्यूँ है
चमकते चाँद से चेहरों के मंज़र से निकल आए
ज़हर मीठा हो तो पीने में मज़ा आता है
आख़िर चराग़-ए-दर्द-ए-मोहब्बत बुझा दिया