आठों पहर लहू में नहाया करे कोई
यूँ भी न अपने दर्द को दरिया करे कोई
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दिल मुतमइन है हर्फ़-ए-वफ़ा के बग़ैर भी
जो भर भी जाएँ दिल के ज़ख़्म दिल वैसा नहीं रहता
ये सच है हम को भी खोने पड़े कुछ ख़्वाब कुछ रिश्ते
तिरी बदन में मेरे ख़्वाब मुस्कुराते हैं
रुख़ हवाओं के किसी सम्त हों मंज़र हैं वही
सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम
मिज़ाज अलग सही हम दोनों क्यूँ अलग हों कि हैं
अख़्लाक़ ओ शराफ़त का अंधेरा है वो घर में
कैसा मकान साया-ए-दीवार भी नहीं
तेज़ आँधी रात अँधयारी अकेला राह-रौ
आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था