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तेज़ आँधी रात अँधयारी अकेला राह-रौ - फ़ुज़ैल जाफ़री कविता - Darsaal

तेज़ आँधी रात अँधयारी अकेला राह-रौ

तेज़ आँधी रात अँधयारी अकेला राह-रौ

बढ़ रहा है सोचता डरता झिजकता राह-रौ

मंज़िलें सम्तें बदलती जा रही हैं रोज़ ओ शब

इस भरी दुनिया में है इंसान तन्हा राह-रौ

कुछ तो है जो शहर में फिरता है घबराता हुआ

बे-ख़बर वर्ना भरे जंगल से गुज़रा राह-रौ

खिड़कियाँ खुलने लगीं दरवाज़े वा होने लगे

जब भी गुज़रा राह से कोई सजीला राह-रौ

ख़िज़्र की सी उम्र वर्ना कैसे तन्हा काटते

बे-सहारा रास्तों का हैं सहारा राह-रौ

बख़्श ही दे कोई शायद गेसुओं की नर्म छाँव

हर नई बस्ती में ठोड़ी देर ठहरा राह-रौ

कोई मंज़िल आख़िरी मंज़िल नहीं होती 'फ़ुज़ैल'

ज़िंदगी भी है मिसाल-ए-मौज-ए-दरिया राह-रौ

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