सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम
सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम
ज़मीर को थपथपा के आख़िर सुला दिया और ख़ुश रहे हम
रिदा-ए-गिरिया पे ता-क़यामत निसार होते रहेंगे दरिया
सबील-ए-ख़ून-ए-जिगर से नादार साहिलों को भिगो चले हम
सफ़र था जब रौशनी की जानिब तो फिर मआल-ए-सफ़र का क्या ग़म
चराग़ की तरह सारी शब शान से जले सुब्ह बुझ गए हम
'फ़ुज़ैल' शायर मुदीर नक़्क़ाद सब ब-ज़ाहिर थे हम ही लेकिन
हमारे अंदर था और इक शख़्स जिस से पैहम लड़ा किए हम
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