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क़दम क़दम पे हैं बिखरी हक़ीक़तें क्या क्या - फ़ुज़ैल जाफ़री कविता - Darsaal

क़दम क़दम पे हैं बिखरी हक़ीक़तें क्या क्या

क़दम क़दम पे हैं बिखरी हक़ीक़तें क्या क्या

बुज़ुर्ग छोड़ गए हैं शहादतें क्या क्या

मैं ताज़ा-दम भी हूँ बेचैन भी हवा की तरह

मिरे क़दम से हैं लिपटी रिवायतें क्या

मिज़ाज अलग सही हम दोनों क्यूँ अलग हों कि हैं

सराब ओ आब में पोशीदा क़ुर्बतें क्या क्या

करम इनाद ख़ुशी ग़म असीर-ए-मायूसी

दिलों को देती है दुनिया भी दावतें क्या क्या

मैं बाज़ आया न लड़ने से हार कर भी 'फ़ुज़ैल'

मिरे ख़ुदा की हैं मुझ पर इनायतें क्या क्या

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