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नौमीद करे दिल को न मंज़िल का पता दे - फ़ुज़ैल जाफ़री कविता - Darsaal

नौमीद करे दिल को न मंज़िल का पता दे

नौमीद करे दिल को न मंज़िल का पता दे

ऐ रह-गुज़र-ए-इश्क़ तिरे क्या हैं इरादे

हर रात गुज़रता है कोई दिल की गली से

ओढ़े हुए यादों के पुर-असरार लिबादे

बन जाता हूँ सर-ता-ब-क़दम दस्त-ए-तमन्ना

ढल जाते हैं अश्कों में मगर शौक़ इरादे

उस चश्म-ए-फ़ुसूँ-गर में नज़र आती है अक्सर

इक आतिश-ए-ख़ामोश कि जो दिल को जला दे

आज़ुर्दा-ए-उल्फ़त को ग़म-ए-ज़िंदगी जैसे

तपते हुए जंगल में कोई आग लगा दे

यादों के मह-ओ-मेहर तमन्नाओं के बादल

क्या कुछ न वो सौग़ात सर-ए-दश्त-ए-वफ़ा दे

याद आती है उस हुस्न की यूँ 'जाफ़री' जैसे

तन्हाई के ग़ारों से कोई ख़ुद को सदा दे

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