कैसा मकान साया-ए-दीवार भी नहीं
कैसा मकान साया-ए-दीवार भी नहीं
जीते हैं ज़िंदगी से मगर प्यार भी नहीं
उठती नहीं है हम पे कोई मेहरबाँ निगाह
कहने को शहर महफ़िल-ए-अग़्यार भी नहीं
गुज़री है यूँ तो दश्त में तन्हाइयों के उम्र
दिल बे-नियाज़-ए-कूचा-ओ-बाज़ार भी नहीं
रुक रुक के चल रहे हैं कि मंज़िल नहीं कोई
हर कूचा वर्ना कूचा-ए-दिलदार भी नहीं
आगे बढ़ाइए तो क़दम आप 'जाफ़री'
दुनिया अब ऐसी वादी-ए-पुर-ख़ार भी नहीं
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