आठों पहर लहू में नहाया करे कोई
आठों पहर लहू में नहाया करे कोई
यूँ भी न अपने दर्द को दरिया करे कोई
अड़ जाएगी फ़सील-ए-शब-ए-जब्र तोड़ कर
क़ैदी नहीं हवा जिसे अंधा करे कोई
दिल तख़्ता-ए-गुलाब भी आतिश-फ़िशाँ भी है
इस रह-गुज़र से रोज़ न गुज़रा करे कोई
ओढ़ी है उस ने सर्द ख़मोशी मिसाल-ए-संग
लफ़्ज़ों के आबशार गिराया करे कोई
पानी की तरह फैल गई घर में शाम-ए-हिज्र
ता-सुब्ह डूब डूब के उभरा करे कोई
मैं हूँ किसी सदा के शिकंजे में 'जाफ़री'
मेरा पता हवाओं से पूछा करे कोई
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