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उधार - फ़ुर्क़त काकोरवी कविता - Darsaal

उधार

हम को मुलाज़मत जो खड़े घाट मिल गई

बाछों की नाव कानों के साहिल से जा लगी

चिट्ठी फिर उन को हम ने ब-सद-शौक़ यूँ लिखी

''आया करो इधर भी मरी जाँ कभी कभी''

दिल ने कहा कि झूम के नारे लगाइये

तख़्ती लगा के पीठ से अब घूम जाइए

आ जाइए तो मिल के महाजन को लूट लें

क़र्ज़ा वो लें कि अस्ल कभी दें न सूद दें

वो क़र्ज़ फिर लिए हैं कि अल्लाह की पनाह!

रूपे उसी से लें मिरी जिस पर पड़ी निगाह

फिर उस के भागने की भी छोड़ी न कोई राह

सब के लंगोटी बंध गई, हालत हुई तबाह

यारा न था फ़ुग़ाँ का, न मौक़ा था आह का

पित्ता फटा हुआ था हर एक क़र्ज़-ख़्वाह का

क़र्ज़े पे हम ने एक मकान ऐसा ले लिया

जिस में कि दो तरफ़ से था जाने का रास्ता

जब सारे क़र्ज़-ख़्वाहों को इस का पता चला

हर फ़र्द ले के अपना बही-खाता आ गया

था हर तरफ़ से शोर कि तशरीफ़ लाइए

सन्नाटा कह रहा था कि डंडे बजाइये

पहली जो आई एक क़यामत मचा गई

बिल ले के क़र्ज़-ख़्वाहों की इक फ़ौज आ गई

हर क़र्ज़-ख़्वाह हद्द-ए-अदब लांगने लगा

दिल अपनी मग़फ़िरत की दुआ माँगने लगा

हर सम्त लाद लाद के गिरने लगे जो बम

गर्माया दिल तो आया तबीअत में पेच-ओ-ख़म

रह रह के अपनी बोटियाँ हम नोचने लगे

और ख़ुद-कुशी की राह नई सोचने लगे

है क़र्ज़ की ये शान कि लो और कभी न दो

दस बीस हाथ खाओ तो दो चार ख़ुद धरो

मरने पे क़र्ज़-ख़्वाहों के चंदे से यूँ उठो

दमड़ी न अपनी ख़र्च हो इस ठाठ से मरो

छे सात साल क़र्ज़ के पैसे न जब दिए

दस बीस सूद-ख्वार तो यूँही ढलक गए

जो अध-मूए थे वो भी थे कुछ ऐसे कज-रवे

बे-सब्र हो के बोले हज़रत हम तो अब चले

वो हम ने क़र्ज़-ख़्वाहों की मिट्टी पलीद की

वो ख़ुद तो मर गए प रक़म उन की रह गई

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