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कुत्तों का मुशाएरा - फ़ुर्क़त काकोरवी कविता - Darsaal

कुत्तों का मुशाएरा

इक शब को एक नाले पे मेरा गुज़र हुआ

कुत्तों का मुनअक़िद था जहाँ इक मुशाएरा

''बुग़'' का जनाब-ए-सद्र ने मिस्रा जो इक दिया

भौं-भौं की गटकरी पे सभों ने उठा लिया

वो बैत शैख़-घेसू की कुतियाँ ने झाड़ दी

चित सामईन हो गए महफ़िल उखाड़ दी

कुतियाँ थीं नौ-जवान कई शाएरात में

कुछ शाएर-ए-कराम थे वाँ उन की घात में

भौं-भौं की धूम जबकि मची काएनात में

दो-चार उन को ले उड़े चुपके से रात में

कुछ तो तलाश-ए-यार में दम तोड़ने लगे

उश्शाक़ उन की याद में सर फोड़ने लगे

ख़ारिश-ज़दा सियाह थी इक उन में बेसवा

हर साँस से निकलती थी जिस के हुआ-हुआ

देसी ज़बाँ में फ़िट था विलायत का टेटुआ

घिग्घी बंधी थी लोगों के औसान थे ख़ता

हैबत से घोंसलों में थे ताइर छुपे हुए

माओं की छातियों से थे बच्चे लगे हुए

इक चौकीदार पास से गुज़रा जो ना-गहाँ

दम का लँगोट बाँध के कुत्ते हुए रवाँ

कोह ओ दमन में गूँज गई हर तरफ़ फ़ुग़ाँ

पें-पें की सोज़-ओ-साज़ में सब से रवाँ रवाँ

डंडा शक़ी का चार तरफ़ घूमने लगा

जो ज़द में आ गया वो ज़मीं चूमने लगा

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