ये जो दुश्मन ग़म-ए-निहानी है
ये जो दुश्मन ग़म-ए-निहानी है
ये भी इक दोस्त अपना जानी है
ग़ाफ़िल हम उस से वो रहे हम से
उम्र-ए-रफ़्ता की क़द्र-दानी है
क़स्र ता'मीर कर चुके हैं बहुत
मंज़िल-ए-गोर अब बनानी है
जिस की उल्फ़त में दिल धड़कता है
अब तलक उस की बद-गुमानी है
और भी इक ग़ज़ल 'फ़रासू' पढ़
अब ये हँगाम-ए-शे'र-ख़्वानी है
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