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हो गए यार पराए अपने - फ़ीरोज़ा ख़ुसरो कविता - Darsaal

हो गए यार पराए अपने

हो गए यार पराए अपने

जिस्म अपने हैं न साए अपने

फेर लीं उस ने भी नज़रें आख़िर

वक़्त पर काम न आए अपने

वो जो बदला तो ज़माना बदला

रंग दुनिया ने दिखाए अपने

अजनबी लगती है अपनी सूरत

हो गए नक़्श पराए अपने

कीं शुमार अपनी जफ़ाएँ उस ने

जुर्म सब हम ने गिनाए अपने

हर घड़ी स्वाँग रचाया हम ने

उस ने सौ रंग दिखाए अपने

ए'तिबार आए भी कैसे उस का

बात जो दिल को न भाए अपने

क्या कहें महव-ए-सफ़र हैं कब से

जिस्म का बोझ उठाए अपने

मुंतज़िर बज़्म-ए-सुख़न थी 'ख़ुसरव'

शम्अ' कब सामने आए अपने

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