ये राज़-ओ-नियाज़ और ये समाँ ख़ल्वत का
ये आँख में आँख डाल देना तेरा
हिरनी है डरी डरी सी और कुछ मानूस
ये नर्म झिजक सुपुर्दगी की ये अदा
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बहुत हसीन है दोशीज़गी-ए-हुस्न मगर
लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की
पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए
देख रफ़्तार-ए-इंक़लाब 'फ़िराक़'
फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन
धीमा धीमा सा नूर जैसे तह-ए-साज़
सानी नहीं तेरा न कोई तेरी मिसाल
तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं
मैं मुद्दतों जिया हूँ किसी दोस्त के बग़ैर
आँखों में जो बात हो गई है