वो पेंग है रूप में कि बिजली लहराए
वो रस आवाज़ में कि अमृत ललचाए
रफ़्तार में वो लचक पवन रस बल खाए
गेसू में वो लटक कि बादल मँडलाये
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सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
हाथ आए तो वही दामन-ए-जानाँ हो जाए
निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या
ख़ुद मुझ को भी ता-देर ख़बर हो नहीं पाई
किस दर्जा सुकूँ-नुमा हैं अबरू के हिलाल
ये मौत-ओ-अदम कौन-ओ-मकाँ और ही कुछ है
लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए
ये शोला-ए-हुस्न जैसे बजता हो सितार
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये ज़िल्लत-ए-इश्क़ तेरे हाथों
छलक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं