रक्षा-बंधन की सुब्ह रस की पुतली
छाई है घटा गगन पे हल्की हल्की
बिजली की तरह लचक रहे हैं लच्छे
भाई के है बाँधी चमकती राखी
Habib Jalib
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तूर था का'बा था दिल था जल्वा-ज़ार-ए-यार था
आँखों में वो रस जो पत्ती पत्ती धो जाए
तेरे आने की क्या उमीद मगर
हम से क्या हो सका मोहब्बत में
इश्क़ की मायूसियों में सोज़-ए-पिन्हाँ कुछ नहीं
जिन की ज़िंदगी दामन तक है बेचारे फ़रज़ाने हैं
महताब में सुर्ख़ अनार जैसे छूटे
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
सानी नहीं तेरा न कोई तेरी मिसाल
न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद
किस दर्जा सुकूँ-नुमा हैं अबरू के हिलाल
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं