क़ामत है कि अंगड़ाइयाँ लेती सरगम
हो रक़्स में जैसे रंग-ओ-बू का आलम
जगमग जगमग है शब्नमिस्तान-ए-इरम
या क़ौस-ए-क़ुज़ह लचक रही है पैहम
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उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम
मुखड़ा देखें तो माह-पारे छुप जाएँ
जब किरनें हिमालिया की चोटी गूँधें
इनायत की करम की लुत्फ़ की आख़िर कोई हद है
तूर था का'बा था दिल था जल्वा-ज़ार-ए-यार था
मौत का भी इलाज हो शायद
सर-ता-ब-क़दम रुख़-ए-निगारीं है कि तन
तेरे आने की क्या उमीद मगर
वो पेंग है रूप में कि बिजली लहराए
इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में
अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है
देवताओं का ख़ुदा से होगा काम