प्रेमी को बुख़ार उठ नहीं सकती है पलक
बैठी है सिरहाने माँद मुखड़े की दमक
जलती हुई पेशानी पे रख देती है हाथ
पड़ जाती है बीमार के दिल में ठंडक
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जिसे लोग कहते हैं तीरगी वही शब हिजाब-ए-सहर भी है
ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त
आज़ादी
इस दौर में ज़िंदगी बशर की
आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था
साग़र कफ़-ए-दस्त में सुराही ब-बग़ल
मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले
अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है
'ग़ालिब' ओ 'मीर' 'मुसहफ़ी'
इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से
नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं
हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है