महताब में सुर्ख़ अनार जैसे छूटे
या क़ौस-ए-क़ुज़ह लचक के जैसे टूटे
वो क़द है कि भैरवीं सुनाए जब सुब्ह
गुलज़ार-ए-इश्क़ से नर्म कोंपल फूटे
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'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में
ये ज़िल्लत-ए-इश्क़ तेरे हाथों
इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से
किस प्यार से होती है ख़फ़ा बच्चे से
हाथ आए तो वही दामन-ए-जानाँ हो जाए
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
हर साँस में गुलज़ार से खिल जाते थे
तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में
ज़िंदगी दर्द की कहानी है
वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें
सुनते हैं इश्क़ नाम के गुज़रे हैं इक बुज़ुर्ग