क्या तेरे ख़याल ने भी छेड़ा है सितार
सीने में उड़ रहे हैं नग़्मों के शरार
ध्यान आते ही साफ़ बजने लगते हैं कान
है याद तेरी वो खनक वो झंकार
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क्या जानिए मौत पहले क्या थी
इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
सहरा में ज़माँ मकाँ के खो जाती हैं
एक रंगीनी ज़ाहिर है गुलिस्ताँ में अगर
फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन
अफ़्लाक पे जब परचम-ए-शब लहराया
जुदाई
आज़ादी
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
कहती हैं यही तेरी निगाहें ऐ दोस्त
तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं