खुलता ही नहीं हुस्न है पिन्हाँ कि अयाँ
देखे तुझे कैसे कोई ऐ जान-ए-जहाँ
बंध जाता है इक जल्वा ओ पर्दा का तिलिस्म
ये ग़ैब ओ शुहूद आँख-मिचोली का समाँ
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'फ़िराक़' इक नई सूरत निकल तो सकती है
वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें
असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
महताब में सुर्ख़ अनार जैसे छूटे
'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में
कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है
कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है
जब चाँद की वादियों से नग़्मे बरसें
'ग़ालिब' ओ 'मीर' 'मुसहफ़ी'
पाते जाना है और न खोते जाना