कहती हैं यही तेरी निगाहें ऐ दोस्त
निकलीं नई ज़िंदगी की राहें ऐ दोस्त
क्यूँ हुस्न-ओ-मोहब्बत से न ऊँचे उठ के
दोनों इक दूसरे को चाहें ऐ दोस्त
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जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की
अफ़्सुर्दा फ़ज़ा पे जैसे छाया हो हिरास
तू हाथ को जब हाथ में ले लेती है
बद-गुमाँ हो के मिल ऐ दोस्त जो मिलना है तुझे
जब किरनें हिमालिया की चोटी गूँधें
हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है
चढ़ती हुई नद्दी है कि लहराती है
कोई आया न आएगा लेकिन
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
तुझ को पा कर भी न कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल
आज़ादी