जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
जिस तरह घटा में एक कौंदा बल खाए
बर्माए फ़ज़ा को जैसे इक चंद्र किरन
यूँही शाम-ए-फ़िराक़ तेरी याद आए
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हर जल्वे से इक दर्स-ए-नुमू लेता हूँ
किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
आज़ादी
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन
रक्षा-बंधन की सुब्ह रस की पुतली
पाते जाना है और न खोते जाना
ज़िंदगी दर्द की कहानी है
आधी रात
बहुत हसीन है दोशीज़गी-ए-हुस्न मगर