जब चाँद की वादियों से नग़्मे बरसें
आकाश की घाटियों में साग़र उछलें
अमृत में धुली हुई रात ऐ काश तिरे
पा-ए-रंगीं की चाप ऐसे में सुनें
Gulzar
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Allama Iqbal
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Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Ahmad Faraz
Mir Taqi Mir
Jaun Eliya
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शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
कौन ये ले रहा है अंगड़ाई
ज़ब्त कीजे तो दिल है अँगारा
तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है
खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही
प्रेमी को बुख़ार उठ नहीं सकती है पलक
अपने ग़म का मुझे कहाँ ग़म है
कुछ न पूछो 'फ़िराक़' अहद-ए-शबाब
उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम
फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन
ज़िंदगी दर्द की कहानी है