हर साँस में गुलज़ार से खिल जाते थे
हर लम्हे में जन्नत की हवा खाते थे
क्या तुझ को मोहब्बत के वो अय्याम हैं याद
जब पर्दा-ए-शब बजते थे दिन गाते थे
Allama Iqbal
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तूर था का'बा था दिल था जल्वा-ज़ार-ए-यार था
ऐ रूप की लक्ष्मी ये जल्वों का राग
मैं देर तक तुझे ख़ुद ही न रोकता लेकिन
'ईसा' के नफ़्स में भी ये एजाज़ नहीं
जब रात गए सुहाग करती है निगाह
किस दर्जा सुकूँ-नुमा हैं अबरू के हिलाल
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
आँखें हैं कि पैग़ाम मोहब्बत वाले
लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
सुन युग-ओ-युग की कहानी न उठा
कह दिया तू ने जो मा'सूम तो हम हैं मा'सूम
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें