धीमा धीमा सा नूर जैसे तह-ए-साज़
बढ़ता जाता है छटके तारों का गुदाज़
लेती हैं जमाहियाँ ये बातें तेरी
सरगोशियाँ जिस तरह करे आलम-ए-राज़
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
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Wasi Shah
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Gulzar
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कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है
कह दिया तू ने जो मा'सूम तो हम हैं मा'सूम
परछाइयाँ
हर साज़ से होती नहीं ये धुन पैदा
छलक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं
मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले
आ जा कि खड़ी है शाम पर्दा घेरे
अब याद-ए-रफ़्तगाँ की भी हिम्मत नहीं रही
तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा'लूम
क्या जानिए मौत पहले क्या थी
असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का