अमृत वो हलाहल को बना देती है
ग़ुस्से की नज़र फूल खिला देती है
माँ लाडली औलाद को जैसे ताड़े
किस प्यार से प्रेमी को सज़ा देती है
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किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
शाम-ए-अयादत
ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
ये ज़िंदगी के कड़े कोस याद आते हैं
अफ़्लाक पे जब परचम-ए-शब लहराया
तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं
फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन
रोने को तो ज़िंदगी पड़ी है
जब चाँद की वादियों से नग़्मे बरसें
जिस तरह असावरी के दिल की धड़कन
क्या जानिए मौत पहले क्या थी
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें