ऐ मअनी-ए-काइनात मुझ में आ जा
ऐ राज़-ए-सिफ़ात-ओ-ज़ात मुझ में आ जा
सोता संसार झिलमिलाते तारे
अब भीग चली है रात मुझ में आ जा
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आ जा कि खड़ी है शाम पर्दा घेरे
खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही
तूर था का'बा था दिल था जल्वा-ज़ार-ए-यार था
ये मौत-ओ-अदम कौन-ओ-मकाँ और ही कुछ है
हो के सर-ता-ब-क़दम आलम-ए-असरार चला
हर साज़ से होती नहीं ये धुन पैदा
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ज़िंदगी में जो इक कमी सी है
हर जल्वे से इक दर्स-ए-नुमू लेता हूँ
इनायत की करम की लुत्फ़ की आख़िर कोई हद है
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों