अफ़्सुर्दा फ़ज़ा पे जैसे छाया हो हिरास
दुनिया को कोई हवा भी आती नहीं रास
डूबी जाती हो जैसे नब्ज़-ए-कौनैन
जिस बात पे हुस्न आज इतना है उदास
Faiz Ahmad Faiz
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वो पेंग है रूप में कि बिजली लहराए
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की
तू हाथ को जब हाथ में ले लेती है
क़तरे अरक़-ए-जिस्म के मोती की लड़ी
ग़ुंचे को नसीम गुदगुदाए जैसे
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
आज़ादी
इश्क़ अभी से तन्हा तन्हा
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
इस दौर में ज़िंदगी बशर की
सोते जादू जगाने वाले दिन हैं