अफ़्लाक पे जब परचम-ए-शब लहराया
साक़ी ने भरा साग़र-ए-मह छलकाया
कुछ सोच के कुछ देर तअम्मुल कर के
उस ने भी ज़रा पर्दा-ए-रुख़ सरकाया
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ये माना ज़िंदगी है चार दिन की
ये मौत-ओ-अदम कौन-ओ-मकाँ और ही कुछ है
शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की
कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई
जब किरनें हिमालिया की चोटी गूँधें
जुदाई
वक़्त-ए-पीरी दोस्तों की बे-रुख़ी का क्या गिला
रात भी नींद भी कहानी भी
वो रातों-रात 'सिरी-कृष्ण' को उठाए हुए
आ जा कि खड़ी है शाम पर्दा घेरे