ज़रा विसाल के बाद आइना तो देख ऐ दोस्त
तिरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई
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अमृत वो हलाहल को बना देती है
फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन
तेज़ एहसास-ए-ख़ुदी दरकार है
क़ामत है कि अंगड़ाइयाँ लेती सरगम
तूर था का'बा था दिल था जल्वा-ज़ार-ए-यार था
वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई
नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं
आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में 'फ़िराक़'
आँखें हैं कि पैग़ाम मोहब्बत वाले
कह दिया तू ने जो मा'सूम तो हम हैं मा'सूम
हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है
कहती हैं यही तेरी निगाहें ऐ दोस्त