तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं
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इश्क़ अभी से तन्हा तन्हा
ये ज़िंदगी के कड़े कोस याद आते हैं
जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की
आवाज़ पे संगीत का होता है भरम
जुगनू
पाल ले इक रोग नादाँ ज़िंदगी के वास्ते
क़तरे अरक़-ए-जिस्म के मोती की लड़ी
जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
शाम-ए-अयादत
समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है
रोने को तो ज़िंदगी पड़ी है
इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में