मज़हब की ख़राबी है न अख़्लाक़ की पस्ती
दुनिया के मसाइब का सबब और ही कुछ है
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धीमा धीमा सा नूर जैसे तह-ए-साज़
क़तरे अरक़-ए-जिस्म के मोती की लड़ी
परछाइयाँ
तिरी निगाह सहारा न दे तो बात है और
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
जुगनू
महताब में सुर्ख़ अनार जैसे छूटे
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
कोई समझे तो एक बात कहूँ
कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है
ख़ुद मुझ को भी ता-देर ख़बर हो नहीं पाई