मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं
वही अंदाज़-ए-जहान-ए-गुज़राँ है कि जो था
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जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है
हर जल्वे से इक दर्स-ए-नुमू लेता हूँ
आधी रात
मुखड़ा देखें तो माह-पारे छुप जाएँ
न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद
इश्क़ अब भी है वो महरम-ए-बे-गाना-नुमा
कह दिया तू ने जो मा'सूम तो हम हैं मा'सूम
आँखों में जो बात हो गई है
ज़ुल्मत ओ नूर में कुछ भी न मोहब्बत को मिला
हाथ आए तो वही दामन-ए-जानाँ हो जाए
शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
वो रातों-रात 'सिरी-कृष्ण' को उठाए हुए