मैं देर तक तुझे ख़ुद ही न रोकता लेकिन
तू जिस अदा से उठा है उसी का रोना है
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साँस लेती है वो ज़मीन 'फ़िराक़'
मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ
'ईसा' के नफ़्स में भी ये एजाज़ नहीं
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात ओ ममात की
शाम-ए-अयादत
महताब में सुर्ख़ अनार जैसे छूटे
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
निखरे बदन का मुस्कुराना है है
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की
किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी
माइल-ए-बेदाद वो कब था 'फ़िराक़'
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें