लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
ऊँची है किस क़दर तिरी नीची निगाह भी
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मैं मुद्दतों जिया हूँ किसी दोस्त के बग़ैर
सुना तो है कि कभी बे-नियाज़-ए-ग़म थी हयात
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है
चढ़ती हुई नद्दी है कि लहराती है
मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं
इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
किस दर्जा सुकूँ-नुमा हैं अबरू के हिलाल
ज़िंदगी में जो इक कमी सी है
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'