किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी
उमीद-वारों में कल मौत भी नज़र आई
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मौत का भी इलाज हो शायद
ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन
जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की
तूर था का'बा था दिल था जल्वा-ज़ार-ए-यार था
आज़ादी
वो रातों-रात 'सिरी-कृष्ण' को उठाए हुए
कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा उसी का है जहाँ में तुझ को
परछाइयाँ
हाथ आए तो वही दामन-ए-जानाँ हो जाए
तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो