कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
जुनूँ का नाम उछलता रहा ज़माने में
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इनायत की करम की लुत्फ़ की आख़िर कोई हद है
आ जा कि खड़ी है शाम पर्दा घेरे
दोशीज़ा-ए-बहार मुस्कुराए जैसे
आज़ादी
लचका लचका बदन मुजस्सम है नसीम
ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
ज़ुल्फ़ों से फ़ज़ाओं में अदाहट का समाँ
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
किस प्यार से होती है ख़फ़ा बच्चे से
समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है