जिस में हो याद भी तिरी शामिल
हाए उस बे-ख़ुदी को क्या कहिए
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निखरे बदन का मुस्कुराना है है
इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
अब तो उन की याद भी आती नहीं
ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं
इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में
जुदाई
शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन
बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में
आँखों में जो बात हो गई है
मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं