इस दौर में ज़िंदगी बशर की
बीमार की रात हो गई है
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जुगनू
इश्क़ की मायूसियों में सोज़-ए-पिन्हाँ कुछ नहीं
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई
मौत का भी इलाज हो शायद
गुल हैं कि रुख़-ए-गर्म के हैं अंगारे
रक्षा-बंधन की सुब्ह रस की पुतली
जुनून-ए-कारगर है और मैं हूँ
लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
देख रफ़्तार-ए-इंक़लाब 'फ़िराक़'
आँखों में जो बात हो गई है
तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो