'ग़ालिब' ओ 'मीर' 'मुसहफ़ी'
हम भी 'फ़िराक़' कम नहीं
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इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से
उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम
ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
ये ज़िंदगी के कड़े कोस याद आते हैं
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
जो रंग उड़ा वो रंग आख़िर लाया
सितारों से उलझता जा रहा हूँ
हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है
तिरी निगाह सहारा न दे तो बात है और
हर साज़ से होती नहीं ये धुन पैदा
किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी
जिस तरह रगों में ख़ून-ए-सालेह हो रवाँ