'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में
कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में
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ये मौत-ओ-अदम कौन-ओ-मकाँ और ही कुछ है
तुम इसे शिकवा समझ कर किस लिए शरमा गए
हर जल्वे से इक दर्स-ए-नुमू लेता हूँ
पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
सहरा में ज़माँ मकाँ के खो जाती हैं
ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं
ग़म तिरा जल्वा-गह-ए-कौन-ओ-मकाँ है कि जो था
हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है
मज़हब की ख़राबी है न अख़्लाक़ की पस्ती
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों