एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
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दोशीज़ा-ए-बहार मुस्कुराए जैसे
आधी रात
जब चाँद की वादियों से नग़्मे बरसें
ये मौत-ओ-अदम कौन-ओ-मकाँ और ही कुछ है
आई है कुछ न पूछ क़यामत कहाँ कहाँ
अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं
जुनून-ए-कारगर है और मैं हूँ
कुछ न पूछो 'फ़िराक़' अहद-ए-शबाब
यूँ इश्क़ की आँच खा के रंग और खिले
ऐ रूप की लक्ष्मी ये जल्वों का राग
वो रातों-रात 'सिरी-कृष्ण' को उठाए हुए
असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का