देवताओं का ख़ुदा से होगा काम
आदमी को आदमी दरकार है
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अमृत वो हलाहल को बना देती है
किस प्यार से होती है ख़फ़ा बच्चे से
तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
सोते जादू जगाने वाले दिन हैं
सहरा में ज़माँ मकाँ के खो जाती हैं
इस दौर में ज़िंदगी बशर की
तूर था का'बा था दिल था जल्वा-ज़ार-ए-यार था
तुझ को पा कर भी न कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल
कह दिया तू ने जो मा'सूम तो हम हैं मा'सूम
इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से
हिण्डोला
'फ़िराक़' इक नई सूरत निकल तो सकती है