छलक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं
निगाह-ए-नर्गिस-ए-राना तिरा जवाब नहीं
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बहुत हसीन है दोशीज़गी-ए-हुस्न मगर
आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था
किस दर्जा सुकूँ-नुमा हैं अबरू के हिलाल
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए
यूँ इश्क़ की आँच खा के रंग और खिले
ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त
आँखों में वो रस जो पत्ती पत्ती धो जाए
कुछ न पूछो 'फ़िराक़' अहद-ए-शबाब
आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है
आँखों में जो बात हो गई है
समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है