बहसें छिड़ी हुई हैं हयात ओ ममात की
सौ बात बन गई है 'फ़िराक़' एक बात की
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जिस तरह असावरी के दिल की धड़कन
उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
किस दर्जा सुकूँ-नुमा हैं अबरू के हिलाल
तुम इसे शिकवा समझ कर किस लिए शरमा गए
तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
माँ और बहन भी और चहेती बेटी
हर साँस में गुलज़ार से खिल जाते थे
ये मौत-ओ-अदम कौन-ओ-मकाँ और ही कुछ है
करते नहीं कुछ तो काम करना क्या आए
आँखों में जो बात हो गई है