असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे क़ाइल भी करता जा रहा हूँ
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पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
दोशीज़ा-ए-बहार मुस्कुराए जैसे
चढ़ती हुई नद्दी है कि लहराती है
हर जल्वे से इक दर्स-ए-नुमू लेता हूँ
लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है
किस लिए कम नहीं है दर्द-ए-फ़िराक़
तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो
अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं
ये राज़-ओ-नियाज़ और ये समाँ ख़ल्वत का
आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
आई है कुछ न पूछ क़यामत कहाँ कहाँ