आँखों में जो बात हो गई है
इक शरह-ए-हयात हो गई है
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तुझ को पा कर भी न कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल
क्या तेरे ख़याल ने भी छेड़ा है सितार
देख रफ़्तार-ए-इंक़लाब 'फ़िराक़'
एक रंगीनी ज़ाहिर है गुलिस्ताँ में अगर
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
ये ज़िंदगी के कड़े कोस याद आते हैं
चढ़ती हुई नद्दी है कि लहराती है
हर जल्वे से इक दर्स-ए-नुमू लेता हूँ
आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था
जुदाई
ख़ुद मुझ को भी ता-देर ख़बर हो नहीं पाई
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो