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ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया - फ़िराक़ गोरखपुरी कविता - Darsaal

ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया

ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया

ये ज़मीं बनती गई ये आसमाँ बनता गया

दास्तान-ए-जौर-ए-बेहद ख़ून से लिखता रहा

क़तरा क़तरा अश्क-ए-ग़म का बे-कराँ बनता गया

इश्क़-ए-तन्हा से हुईं आबाद कितनी मंज़िलें

इक मुसाफ़िर कारवाँ-दर-कारवाँ बनता गया

मैं तिरे जिस ग़म को अपना जानता था वो भी तो

ज़ेब-ए-उनवान-ए-हदीस-ए-दीगराँ बनता गया

बात निकले बात से जैसे वो था तेरा बयाँ

नाम तेरा दास्ताँ-दर-दास्ताँ बनता गया

हम को है मालूम सब रूदाद-ए-इल्म-ओ-फ़ल्सफ़ा

हाँ हर ईमान-ओ-यक़ीं वहम-ओ-गुमाँ बनता गया

मैं किताब-ए-दिल में अपना हाल-ए-ग़म लिखता रहा

हर वरक़ इक बाब-ए-तारीख़-ए-जहाँ बनता गया

बस उसी की तर्जुमानी है मिरे अशआ'र में

जो सुकूत-ए-राज़ रंगीं दास्ताँ बनता गया

मैं ने सौंपा था तुझे इक काम सारी उम्र में

वो बिगड़ता ही गया ऐ दिल कहाँ बनता गया

वारदात-ए-दिल को दिल ही में जगह देते रहे

हर हिसाब-ए-ग़म हिसाब-ए-दोस्ताँ बनता गया

मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ

जो भी मैं कहता गया हुस्न-ए-बयाँ बनता गया

वक़्त के हाथों यहाँ क्या क्या ख़ज़ाने लुट गए

एक तेरा ग़म कि गंज-ए-शाईगाँ बनता गया

सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'

क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया

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