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लुत्फ़-सामाँ इताब-ए-यार भी है - फ़िराक़ गोरखपुरी कविता - Darsaal

लुत्फ़-सामाँ इताब-ए-यार भी है

लुत्फ़-सामाँ इताब-ए-यार भी है

महरम-ए-इश्क़ शर्मसार भी है

सुस्त-पैमान ओ बे-नियाज़ सही

हुस्न तस्वीर-ए-इंतिज़ार भी है

क्या करे वो निगाह-ए-लुत्फ़ कि इश्क़

शादमाँ भी है सोगवार भी है

गुलशन-ए-इश्क़ हूँ ख़िज़ाँ मेरी

वज्ह-ए-रंगीनी-ए-बहार भी है

उक़्दा-ए-इश्क़ को न तू समझा

यही उक़्दा कुशूद-ए-कार भी है

अपनी तक़दीर अपने हाथ में ले

शामिल-ए-जब्र इख़्तियार भी है

आप अपना चढ़ाव अपना उतार

ज़िंदगी नश्शा है ख़ुमार भी है

उन निगाहों में है शिकायत सी

इश्क़ शायद जफ़ा-शिआर भी है

दिल से है दूर भी निगाह तिरी

दिल के अंदर है दिल के पार भी है

सर-ब-सर ग़र्क़-ए-नूर हो लेकिन

ज़िंदगी इकतिसाब-ए-नार भी है

कौन तरग़ीब-ए-होश दे कि जुनूँ

बे-ख़बर भी है होशियार भी है

ख़लवत-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ भी है उदास

सर्द कुछ बज़्म-ए-रोज़गार भी है

राज़ उस आँख का नहीं खुलता

दिल शकेबा भी बे-क़रार भी है

ख़ुद तुझे भी हुई न जिन की ख़बर

उन जफ़ाओं का कुछ शुमार भी है

इस में लाखों निज़ाम-ए-शम्सी हैं

यूँ तो दिल तीरा-रोज़गार भी है

इस की ज़ौ उस की गर्मियाँ मत पूछ

ज़िंदगी नूर भी है नार भी है

इश्क़-ए-हिज्राँ-नसीब का भी है ध्यान

तिरे वा'दे का ए'तिबार भी है

इश्क़ ही से हैं मंज़िलें आबाद

कारवाँ कारवाँ पुकार भी है

कोई समझा उसे न देख सका

निगह-ए-शोख़ शर्मसार भी है

उस से छुट कर ये सोचता हूँ 'फ़िराक़'

इस में कुछ अपना इख़्तियार भी है

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